Sunday, August 17, 2008
through the eye's of a very old man.............
गुजरी थी जिन राहों में उमर की कम्पन,
वो राहें अजनबी निकली,
मंजिल पर पहुच आराम पायेगे सोचा था,
पर मंजिलें भी खुदकशी निकली .
दोस्ती के हज़ार फरमान उडेल कर कानों मे,
वफादारी के दामन से लिपटे हाथों में,
ऐन मौके पर ही पलट गए वोह, क्योंकि,
हमारे दोस्तों की दुश्मनों से दोस्ती निकली.
उमर के पड़ाव कुछ यूँ बीत गए,
मानों पलकों पे सारे मौसम रीत गए ,
पतझड़ और सावन के बीच रह खोजते,
मासूमियत की चादर ओढे ज़िन्दगी निकली।
ऐसे भी दिन थे की, ऑंचल की छाओं में माँ की,
सारी दूनिया समेट रखी थी हमने ,
उम्र बढते वो सपनो की दूनिया भी,
रेत के घरों सी बनावटी निकली .
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