Sunday, August 17, 2008

through the eye's of a very old man.............


गुजरी थी जिन राहों में उमर की कम्पन,
वो राहें अजनबी निकली,
मंजिल पर पहुच आराम पायेगे सोचा था,
पर मंजिलें भी खुदकशी निकली .

दोस्ती के हज़ार फरमान उडेल कर कानों मे,
वफादारी के दामन से लिपटे हाथों में,
ऐन मौके पर ही पलट गए वोह, क्योंकि,
हमारे दोस्तों की दुश्मनों से दोस्ती निकली.

उमर के पड़ाव कुछ यूँ बीत गए,
मानों पलकों पे सारे मौसम रीत गए ,
पतझड़ और सावन के बीच रह खोजते,
मासूमियत की चादर ओढे ज़िन्दगी निकली।

ऐसे भी दिन थे
की, ऑंचल की छाओं में माँ की,
सारी दूनिया समेट रखी थी हमने ,
उम्र बढते वो सपनो की दूनिया भी,
रेत के घरों सी बनावटी निकली .

4 comments:

  1. buddha itna frust kyun hai... :P
    waise, quite good, masto poetry hai

    keep it up! :)

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  2. buddhe ne bahut ummed laga rakhi thi budhape se ....saath waloon ne tod di :(

    thanx yaar

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  3. Yaar mast poetry hai BUT bahut jyada hee pesimistic ho gayi hai
    Itna frust nahi hota hai yaar koi...Aur agar hota hai to batata nahi

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  4. frust? aur koi nahi bata pata shayad isiliye likhne ki zaroorat pad jaati hai...

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